प्रिन्टेड सर्किट बोर्ड या पीसीबी एलेक्ट्रानिक अवयवों को आधार/आश्रय प्रदान करने के लिये तथा इन्हें आपस में सुचालक मार्गों के माध्यम से जोड़ने के लिये उपयोग में लाया जाता है। यह एक कुचालक आधार (सबस्ट्रेट) के उपर ताँबा (कॉपर) की पतली पन्नी ढ़ले बोर्ड से सुविचार ढ़ंग से कॉपर को हटाकर (इच करके) बनाया जाता है।पीसीबी की विशेषता है कि यह मजबूत, सस्ता और अत्यन्त विश्वसनीय होता है। ये भारी मात्रा में उत्पादन के लिये सर्वथा उपयुक्त होते हैं।
पीसीबी का आविष्कार आस्ट्रिया के
इंजीनियर पॉल इस्लर (Paul Eisler) ने सन् १९३६(1936) में किया जब वे इंग्लैण्ड में
काम कर रहे थे।
(2) प्रतिरोधक (Resistance)
प्रतिरोधक (resistor) दो सिरों वाला वैद्युत अवयव है जिसके सिरों के बीच विभवान्तर उससे बहने वाली तात्कालिक धारा के समानुपाती (या लगभग समानुपाती) होता है। ये विभिन्न आकार-प्रकार के होते हैं। इनसे होकर धारा बहने पर इनके अन्दर उष्मा उत्पन्न होती है। कुछ प्रतिरोधक ओम के नियम का पालन करते हैं जिसका अर्थ है कि -
V = IR
व्यवहार में प्रयुक्त प्रतिरोधक विभिन्न पदार्थों, तारों एवं फिल्मों के द्वारा बनाये जाते हैं। हीटर, विद्युत इस्तरी (प्रेस), विद्युत बल्ब आदि वैद्युत-दृष्टि से प्रतिरोधक हैं।
(3) संधारित्र
(capacitor)
विभिन्न तरह के आधुनिक संधारित्र
संधारित्र या कैपेसिटर (Capacitor), विद्युत परिपथ में प्रयुक्त होने वाला दो सिरों वाला एक प्रमुख अवयव है। संधारित्र में धातु की दो प्लेटें होतीं हैं जिनके बीच के स्थान में कोई कुचालक डाइएलेक्ट्रिक पदार्थ (जैसे कागज, पॉलीथीन, माइका आदि) भरा होता है। संधारित्र के प्लेटों के बीच धारा का प्रवाह तभी होता है जब इसके दोनों प्लेटों के बीच का विभवान्तर समय के साथ बदले। इस कारण नियत डीसी विभवान्तर लगाने पर स्थायी अवस्था में संधारित्र में कोई धारा नहीं बहती। किन्तु संधारित्र के दोनो सिरों के बीच प्रत्यावर्ती विभवान्तरलगाने पर उसके प्लेटों पर संचित आवेश कम या अधिक होता रहता है जिसके कारण वाह्य परिपथ में धारा बहती है। संधारित्र से होकर डीसी धारा नही बह सकती। dsisflVj dks C ls
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संधारित्र की धारा और उसके प्लेटों के बीच में विभवान्तर का सम्बन्ध निम्नांकित समीकरण से दिया जाता है-
जहाँ :
§
I संधारित्र के प्लेटों के बीच बहने वाली धारा है,
§
U संधारित्र के प्लेटों के बीच का विभवान्तर है,
§
C संधारित्र की धारिता है जो संधारित्र के प्लेटों की दूरी, उनके बीच प्रयुक्त डाइएलेक्ट्रिक पदार्थ, प्लेटों का क्षेत्रफल एवं अन्य ज्यामितीय बातों पर निर्भर करता है। संधारित्र की धारिता निम्नलिखित समीकरण से परिभाषित है-
कुछ छोटे आकार-प्रकार के प्रेरकत्व
अपेक्षाकृत बड़ा प्रेरकत्व जो पावर सप्लाइयों में प्रयुक्त होते हैं।
प्रेरकत्व (inductor or a reactor) एक वैद्युत अवयव है जिसमें कोई विद्युत धारा प्रवाहित करने पर यह चुम्बकीय क्षेत्र के रूप में उर्जा का भंडारण करता है। प्रेरकत्व द्वारा चुम्बकीय उर्जा के भंडारण की क्षमता को इसका प्रेरकत्व (inductance) कहा जाता है और इसे मापने की इकाई हेनरी है।
(5) डायोड(Diode)
डायोड आकार-प्रकार में भिन्न दिख सकते हैं। यहाँ चार डायोड दिखाये गये हैं जो सभी अर्धचालक डायोड हैं। सबसे नीचे वाला एक ब्रिज-रेक्टिफायर है जो चार डायोडों से बना होता है।
डायोड (diode) एक वैद्युत युक्ति है। अधिकांशत: डायोड दो सिरों (अग्र) वाले होते हैं किन्तु ताप-आयनिक डायोड में दो अतिरिक्त सिरे भी होते हैं जिनसे हीटर जुड़ा होता है। डायोड कई तरह के होते हैं किन्तु इन सबकी प्रमुख विशेषता यह है कि यह एक दिशा मेंधारा को बहुत कमप्रतिरोध के बहने देते हैं जबकि दूसरी दिशा में धारा के विरुद्ध बहुत प्रतिरोध लगाते हैं। इनकी इसी विशेषता के कारण ये अन्य कार्यों के अलावा प्रत्यावर्ती धारा को दिष्ट धाराके रूप में बदलने के लिये दिष्टकारीपरिपथों में प्रयोग किये जाते हैं। आजकल के परिपथों में अर्धचालक डायोड, अन्य डायोडों की तुलना में बहुत अधिक प्रयोग किये जाते हैं।
(6) ट्रांज़िस्टर (Transistor)
अलग-अलग रेटिंग के कुछ ट्रांजिस्टर
ट्रान्जिस्टर एक अर्धचालक युक्ति है जिसे मुख्यतःप्रवर्धक (Amplifier)
के रूप में प्रयोग किया जाता है। कुछ लोग इसे बीसवीं शताब्दी की सबसे महत्वपूर्ण खोज मानते हैं।
ट्रान्जिस्टर का उपयोग अनेक प्रकार से होता है। इसेप्रवर्धक, स्विच, वोल्टेज रेगुलेटर, सिग्नल माडुलेटर, आसिलेटर आदि के रूप में काम में लाया जाता है। पहले जो कार्य ट्रायोड से किये जाते थे वे अधिकांशत: अब ट्रान्जिस्टर के द्वारा किये जाते हैं।
प्रत्यावर्ती धारा वह धारा है जो किसी विद्युत परिपथ में अपनी दिशा
बदलती रहती हैं । इसके विपरीत दिष्ट धारा समय के साथ अपनी दिशा नहीं बदलती। भारत
में घरों मे प्रयुक्त प्रत्यावर्ती धारा की आवृत्ति 50 हर्ट्स होती हैं अर्थात यह
एक सेकेण्ड में पचास बार अपनी दिशा बदलती है।
वेस्टिंगहाउस का आरम्भिक दिनों का प्रत्यावर्ती धारा निकाय
प्रत्यावर्ती धारा या पत्यावर्ती विभव का परिमाण (मैग्निट्यूड) समय
के साथ बदलता रहता है और वह शून्य पर पहुंचकर विपरीत चिन्ह का (धनात्मक से ऋणात्मक
या इसके उल्टा) भी हो जाता है। विभव या धारा के परिमाण में समय के साथ यह परिवर्तन
कई तरह से सम्भव है। उदाहरण के लिये यह साइन-आकार (साइनस्वायडल) हो सकता है,
त्रिभुजाकार हो सकता है, वर्गाकार हो सकता है, आदि। इनमें साइन-आकार का विभव या
धारा का सर्वाधिक उपयोग किया जाता है। आजकल दुनिया के लगभग सभी देशों में बिजली का
उत्पादन एवं वितरण प्रायः प्रत्यावर्ती धारा के रूप में ही किया जाता है, न कि
दिष्ट-धारा (डीसी) के रूप में। इसका प्रमुख कारण है कि एसी का उत्पादन आसान है;
इसके परिमाण को बिना कठिनाई के ट्रान्सफार्मर की सहायता से कम या अधिक किया जा
सकता है ; तरह-तरह की त्रि-फेजी मोटरों की सहायता से इसको यांत्रिक उर्जा में बदला
जा सकता है। इसके अलावा श्रव्य आवृत्ति , रेडियो आवृत्ति , दृश्य आवृत्ति आदि भी
प्रत्यावर्ती धारा के ही रूप हैं।
दिष्ट धारा वह धारा हैं जो सदैव एक ही दिशा
में बहती हैं व जिसकी ध्रुवीयता नियत रहती हैं । इसकी तुलना प्रत्यावर्ती धारा से
की जा सकती है जो अपनी ध्रुवीयता (जो कि धारा की दिशा से संबंधित है) निश्चित
कालक्रम में बदलती रहती है । इन दोनों ही धाराओं का परिमाण निश्चित रहता है ।
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